Saturday 4 June 2011

मुफलिसी के वो अय्याश दिन

नौकरीपेशा... खासतौर पर मीडियाकर्मी हर रोज ऊपरवाले को मनाते हैं, इस बात --के लिए कि मुफलिसी के दिनों को उनकी जिंदगी में आने की मंजूरी ना मिले। लेकिन, मेरा कहना है की भइया एक बार बेरोजगारी और तंगहाली में जिन्दगी का मजा चख लेना भी जरूरी होता है। ये मुफलिसी कुआरेपन आए तो बात ही कुछ और है...क्योंकि केवल एक पेट के लिए ही अय्यारी करनी पड़ती है। जी हां... अय्यारी, धारावाहिक चंद्रकांता वाली नहीं ... बोल-वचन से ठसाठस आधुनिक अय्यारी।
शुरूआती साल-डेढ़ साल में उप-संपादक की उपाधि लिए जब सीना और दिमाग दोनों फलने-फूलने  लगे, ठीक उन्हीं दिनों नौकरी पर खुद की तुनकमिजाजी भारी पड़ गई, और तो और... देश के पुनर्निर्माण की मेरी भावी योजनाओं पर भी तुषारापात हो गया। उम्मीद लगाए बैठे देश के लिए ये एक बड़ा झटका था... खास तौर पर मेरी नजर में।  मेरा नुकसान तो तात्कालिक  था। खैर...तनख्वाह आए महज एक-दो दिन ही गुजरे थे... लिहाजा आधी तो सलामत जेब में खनखना रही थी, सो हम भी ऑफिस से रवाना हो गए। रास्तेभर संपादक, अपनी किस्मत और नाजों से पाले गुस्से को कोसते पास के अपने किराए के कमरे में दाखिल हो गए। लानत-मलानत का ये सिलसिला अटूट लग रहा था, लेकिन असमय भूख ने चेताया। फिर दरवाजे पर ताला लगाया और सड़क पर आते-जाते दूसरे ‘बेमकसद नौकरीपेशा’ लोगों को जी-भर दुत्कारा। वैसे परनिंदा से हमेशा ही मन को अजीब सी शांति मिलती थी। खैर... चौराहे के किनारे शाकाहारी होटल को ताकने लगे, पर पास ही हाला, प्याला और बारबाला से सजा एक दूसरा बोर्ड ज्यादा लुभा रहा था। यहां समस्या और विकट हो गई। जेब में पड़े रुपयों का वजन दिमाग को खर्चे के स्पष्ट संकेत नहीं भेज पा रहा था। इतने में हमारे प्रसिद्ध हथौड़ाछाप मोबाइल पर लंगोटिया यार ने घंटी बजा दी। ऐसा लगा मानो डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो। बड़ी खबर से सूचित करने के साथ ही हमने कह दिया अब कुछ दिन का ब्रेक लेकर ही दूसरी नौकरी पकड़ेंगे। यार तो यारों का यार निकला। छूटते ही बोला... फिक्र मत कर आखिर दोस्त किस दिन के लिए होते हैं। पहली ट्रेन पकड़ और आ जा। फैसला हो चुका था... आज की रात पनीर का साथ हाला और प्याला देंगे... हाँ बालाओं का कोई किरदार इस एपिसोड में नहीं था। सारा माल-असबाब पैक कर घर आ गए। आधी बोतल भीतर जाते ही साथी पत्रकारों को  फैसले और आगामी योजनाओं से अवगत करा दिया। देर रात के चिंतन और क्रियाकलापों ने अगली सुबह को पूरी तरह प्रभावित किया था। लेकिन, निश्चय पक्का था इसलिए बस और ट्रेन के मिले-जुले सफ़र की बदौलत गृह नगर के स्टेशन पर उतर गए। हवा की महक चिर-परिचित थी... ये हमेशा ही अभूतपूर्व होती है। दोस्त को फोन लगाया, तो वह आवश्यक काम में मशरूफ था। थोड़ी जलन और बहुत ज्यादा खुशी हुई। जलन उसके नौकरी पर बदस्तूर लगे रहने और खुशी इस पर कि पैसे का रोना चाहकर भी नहीं रो सकता... मतलब हर शाम का जुगाड़ पक्का। छुट्टी की पहली शाम शानदार थी, बाकि शामों में रेस्टोरेंट कि जगह सरयू नदी के तट ने ली, चाय और सिगरेट का लुत्फ़ जारी था। लौटते तो घरवालों से अल्पकालिक वार्ता होती, जो हमेशा की तरह कहते रहते... चिंता मत करना। इस संबंध में आदतन अपने अदम्य साहस की डींगे पीटता मैं छत पर चला गया। काफी देर से एक बात दिमाग में डंके बजा रही थी... लंगोटिया जाते-जाते कह गया था कि कल ससुराल जाना है। मेरा तो परेशानी से पीछा छूटता ही नहीं, अब अगले दिन की व्यवस्था कैसे होगी। यही सोचकर आसमान आकाशगंगाओं में ध्रुव तारे को तलाशने लगे। जेब में पड़ी इकलौती सिगरेट को बड़ी देर से निकल कर वापस रख रहे थे। मनी मैनेजमेंट और चीजों का सही उपयोग करना इस वक्त बेहद जरूरी था। खैर... अढ़ाई रुपए की धूम्रपान दंडिका ही थी, कोई राजदंड नहीं... कि राजपाट फुंक जाता, सो वो भी सुलगा ली। अब असली औकात में आकर सोच रहे थे कि किसके सामने नौकरी मांगने के लिए जाएं, इस बीच परिचित पत्रकार दोस्त संदेशा आया। नई नौकरी कि व्यवस्था लगभग हो चुकी थी। आसमान अब और भी हसीन लग रहा था। खुमारी भी चढ़ रही थी... देश के नवनिर्माण के संबंध में ज्यादा कुछ  सोच नहीं पाया.. सो गया। मुफलिसी के  उन अय्याश दिनों में घर की छत पर निद्रा सुख को बयां कर पाना आज भी मुश्किल काम है।

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