Sunday 28 August 2011

सफ़र

यूँ ही चले थे घर से, कोई वजह नहीं थी
अब तुम हो हमसफ़र, तो ख्वाहिश पनप रही है
मंजिल की फिक्र है ना ... थकने का डर जरा सा
है हाथों में हाथ तेरा... हर राह अब हसीं है

Sunday 21 August 2011

प्रारंभ

नव प्रभात, नव किरण खिली.. उड़ पड़े विहग आकाश हैं
अब शूरवीर रण जीतेंगे.. ये अरिदल को भी आभास है
द्रढ प्रतिज्ञ उन्मत्त चाल.. झंकृत धरती आकाश हैं
ये रुकेंगे, थकेंगे,  डिगेंगे नहीं.. जब तक के अंतिम सांस है

Thursday 11 August 2011

अपंग

तेजी से भागते खेत-खलिहान.. ढोर-इंसान, घर-नदी-नाले... सब ट्रेन के साथ ही रुक गए थे. स्टेशन पर उमस ने हाल बिगाड़ रखा था. अक्सर सफ़र के दौरान बनने-बिगड़ने वाले मेरे ख्याल भी पसीने में तर-बतर... बेहाल हो रहे थे. इसी बीच अचानक नजर उस अपंग पर टिक गई, जो लगातार लोगों के पैरों को हटाकर डिब्बे के फर्श को साफ़ करता जा रहा था. शिद्दत से अपने काम में जुटा वो अधेड़ 'अपने जैसे औरों' की तरह बनावटी नहीं लग रहा था.और शायद यही बात वो साबित करना चाहता था, ट्रेन में चलने-फिरने वाली उस दुनिया के सामने...हर दिन. सफाई करने के बाद वो घिसटकर हर कम्पार्टमेंट के सामने रूका... हाथ नहीं फैलाए. अगर किसी ने जेब से निकाल कर कुछ दे दिया, तो ले लिया. मेरी तरह कई दूसरे यात्री भी उस लाचार की इस 'अजीब गैरत' को अचरज भरी निगाहों से देख रहे थे. 
इतने में दूर मचे कोलाहल ने उसकी तरफ से ध्यान हटा दिया. उन लोगों की नजरें भी शोर की तरफ उठ गईं, जो डिब्बों में घुसने वाले हर मंगते और लाचारों को हिकारत से अनदेखा कर देते हैं.
शोर मचा हुआ था... पकड़ो-पकड़ो चोर. तभी एक शख्स भागते हुए हमारे कम्पार्टमेंट के सामने से गुजर गया. उसके हाथ में शायद जेवर जैसी कोई चीज थी. सभी हमसफ़र मामला समझते-बूझते उस चोर का नजरों से पीछा कर रहे थे. वो गेट से कूदने वाला था. 
तभी किसी ने उसके पैरों को जकड़ लिया. वो फर्श साफ़ करने वाला अपंग था. पकड़ने और  छुड़ाने में दोनों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थीं. अभी तक कोई भी यात्री अपनी जगह से हिला नहीं था..सब तमाशा देख रहे थे. 
तभी अचानक चोर ने भरपूर लात उस लाचार के चेहरे पर दे मारी. उसकी पकड़ शायद दर्द के चलते ढीली पड़ गई थी. दो पल की कश्मकश के बाद चोर नजरों से ओझल हो चुका था.
अब सभी की नजरें अपने जबड़े से खून साफ़ करते उस अपंग की ओर थीं, जो अपनी आँखों में आंसू लिए तमाशबीन भीड़ को घूर रहा था.. वो निगाहें हर मुखौटे को चीरे डाल रही थीं.
वो आँखें सवालिया भी थीं और नंगा सबूत भी.. वहां मौजूद हर शख्स की बेबसी..उनकी अपंगता का!

Wednesday 3 August 2011

रंग बरसाए मोरा साजन......

रंग बरसाए मोरा सजना, अंखियन आवे मोरी लाज न.
मले गुलाल चिकोटी कटे, फिर तन लागे क्यों आग न.
रंग बरसाए मोरा साजना ......

बैरी पवन मोरा अंचल खींचे, पिया हरजाई आवे बाज न.
सुबह शाम मोहे मथ-मथ डाले..रच-बस जाए हर सांस मा.
रंग बरसाए मोरा साजना.....

भरे तरंग बदन में मोरे... मैं लुट जाऊं पी के साथ मा
अंग-अंग मोरे साजन दमके.. घोरे रस आवाज मा
रंग बरसाए मोरा साजना ......

मोरे बदन से जोबन टपके, पिया... ताके पियासा बरसात मा
फिरे मलंग जब जी भर जाए...फिर तरसाए दिन रात मा
तब हाथ ना आवे मोरा साजना ...... फिरे विहग आकाश मा
बैराग कराये मोरा साजना, रंग बरसाए मोरा साजना ......