Sunday 31 July 2011

हमेशा.. हर बार

वो आ रही थी और मैं हमेशा की तरह केवल उसे ही देख रहा था.. अक्सर ऐसा ही होता था आस-पास की चीजें या तो उसमें खो जाती थीं या फिर उसका हिस्सा बन जाती थी. जैसे धूप उसके चेहरे में पनाह लेती थी और हवा उसके बालों से खेलने लगती थी..
बेफिक्री उसका सबसे बड़ा गहना थी , जिसे आज वो साथ नहीं लायी और इसीलिए मुझे सबकुछ दिखाई दे गया. जमीन पर फूंक-फूंक कर रखे गए कदम.. आस-पास के लोगों पर पड़ती सवालिया निगाहें और पूरे चेहरे पर उलझनों का जाल.
सामने बैठते ही उसने कहा कि काम ज्यादा है, सो ज्यादा देर रुक न पाउंगी. मुझे पता था कमी वक़्त की नहीं किसी और बात की है.. और वो बात अब नहीं रही. ये तो बस एक रिवाज अदा करना था... आख़िरी बार देखने या फिर कुछ कहने-सुनने का.
चीखते, रोते हुए कुछ खामोश लम्हों के बाद वो चली गई... कभी वापस ना आने के लिए. इतने सालों में पहली बार मैं बेफिक्र हुआ था.. इस बात से की अब कोई उसे मुझसे दूर नहीं कर सकता है.
अरसा गुजरने के बाद वो आज भी वैसे ही आती है.. और मुझे उसके अलावा कुछ नहीं दिखता, क्योंकि वो पहले की तरह ही बेफिक्र है..जैसे पहाड़ों से उतर रही हो. हर आमद पर मैं और मेरी कायनात उसमें ही समा जाती है..हमेशा.. हर बार

Saturday 23 July 2011

यूं ही बारिश पे...

यूं बरस रहा है बादल जमीन पे आज
के हों ख्वाब मोहब्बत के और गुजरे न रात
नजर भी नहीं हटती है ... उनके चेहरे से
और डर लगा है ये भी... के खुल जाए ना राज

(भोपाल में लगातार तीसरे दिन भी बारिश चल रही है... उसी पर कुछ ख्याल )

Thursday 14 July 2011

छलनी होते देश की हालत किस कीमत पर सुधरेगी

हवा में बारूद, जमीं पर लोथड़े, आँखों में गरम पानी है
लोकतंत्र की सूली चढ़ा फिर कोई हिन्दुस्तानी है
अभी आएगी आवाज ये हमला पाकिस्तानी है
अब हमारी सरकार बना दो इनको याद दिलानी नानी है

अगली सुबह फिर हम जिंदादिल कहलायेंगे
दिल में लेकर डर-दहशत रोजी रोटी को जायेंगे
साल महीने बीतेंगे मौसम आयेगा वोटिंग का
दारू-मुर्गे और वादों पर दोहरानी वही कहानी है

नेता जी गलियारे में पैरों पर गिरकर जायेंगे
वोट दे दो माई अब हम नया सवेरा लायेंगे
भोला और भुलक्कड़ रामू ठप्पा देकर आयेगा
अपना नेता आते ही बीपीएल कार्ड बनाएगा

वो दिन भी आ जायेगा जब बरसी लोग मनाएंगे
दहशत की बलि चढ़े किसी इंसा की याद दिलाएंगे
सूनी मांग लिए कोई फिर खून के आंसू रोएगी
सोचेगी अब कौन सुहागन अपना साजन खोएगी

कब तक लाशों पर सरकारों का सिंघासन चमकेगा
खाकी-खादी का मन किस दिन सच्चाई से दमकेगा
किस दिन बिटिया निर्भय होकर सड़कों से यूं गुजरेगी
छलनी होते देश की हालत किस कीमत पर सुधरेगी



(जुलाई २०११ में मुंबई ब्लास्ट पर मेरी पीड़ा )