Sunday 26 June 2011

जो खुदी से मुल्क संवार दे ऐसा अवाम चाहिए

हुक्मरां शैतान सा, न कोई गुलाम चाहिए
जो हमेशा हक की कहा करे, ऐसा कलाम चाहिए।
संगीन से डरे कभी, न सहे वो जुल्मो जलालतें
जो खुदी से मुल्क संवार दे ऐसा अवाम चाहिए।।



अपनी मिट्टी की फितरत को ही नहीं पहचान पाएंगे, तो जाहिर सी बात है कि कदम जमाने और आशियां बसाने में मुश्किल आएगी ही।
शायद भूल गए हैं कि जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने के लिए हिंदुस्तानी को किसी समाजसेवी या बाबा की जरूरत कभी नहीं पड़ी थी। तारीखें आज भी बोलती हैं... हिंदुस्तानी ने हिंदुस्तान के लिए बिना शर्त सिर्फ इस उम्मीद में अपने खून को मिट्टी से सान दिया कि एक ना एक दिन ये कुरबानी रंग जरूर लाएगी। 29 साल का जवान मंगल पांडे अगर अपनी जान की खातिर, दूसरे हिंदुस्तानी की पहल का इंतजार करता तो क्या होता? 29 मार्च 1857 को कोलकाता के करीब बराकपुर छावनी में शुरू हुई आजादी की जंग अंग्रेजों के तख्त को कभी दरका नहीं पाती।
पांडे के प्राण स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ की आहुति बन गए, ताकि वो ज्वाला और धधके। शहादत ने न केवल मंगल पांडे को अमर कर दिया, बल्कि उस पहले कदम को भी... जो आजादी की ओर उठे थे।
फर्स्ट क्लास से दुत्कारकर थर्ड क्लास में भेजे जाने के बावजूद अगर मोहन दास करमचंद गांधी पीटरमारिट्जबर्ग रेलवे स्टेशन पर चुप बैठ जाते... तो? वो घटना किसे याद रहती? अंग्रेजों को इस बात का अहसास कैसे होता कि इंसान का काला रंग उसके निम्न होने की निशानी नहीं है? गांधी आवाज न उठाते, तो दक्षिण अफ्रीका में नरक भुगत रहे "कालों" को न्याय मिलता?
नमक सत्याग्रह के लिए 12 मार्च 1930 को दांडी यात्रा पर भी गांधी अकेले ही निकले थे... 24 दिन और 390 किलोमीटर की वो यात्रा जब पूरी हुई, तो हर तरह लाखों सत्याग्रही गांधी के साथ खड़े थे।
सैकड़ों अंग्रेज जवानों ने वहां भी लाठियां बरसाईं थीं.. लेकिन गांधी और वहां मौजूद हर हिंदुस्तानी का इरादा फौलादी हो चुका था.. जिसे लाठियों और गोलियों से भेदना नामुमकिन था।
आजादी में अपनी दुल्हन देखने वाले दीवाने भगत सिंह को जान की परवाह होती, तो उसकी फांसी अंग्रेजों के गले का फंदा ना बनती। महज 23 साल के भगत, राजगुरू और सुखदेव की फांसी को गुमनाम रखने के लिए अंग्रेजों ने लाख जतन किए। लेकिन, मौत की तरफ मुस्कुराते हुए बढ़ते उन मतवालों के गीत हिंदुस्तानी युवाओं की नसों में आग बनकर उतर गए। उस आवाज का लावा अंग्रेज शासन की हर चौकी को राख कर गया।
अशफाक उल्ला खां और राम प्रसाद बिस्मिल की दोस्ती किसी भी मिसाल से बढ़कर है... शायद आज के हालात देख उन्हें शर्म से ही मौत आ जाती।
ये सारी बातें इसलिए कि हमारी यादाश्त लौट आए। हम हिंदुस्तान में रहते हैं... चांद पर नहीं और अगर वहां भी इतने ही खुदगर्ज रहेंगे, तो आजाद आशियां वहां भी नहीं बसेगा।
ये काले अंग्रेज गोरों से ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि वो काले रंग की कमजोरियों और ताकत से वाकिफ हैं। ये न केवल अपनी जमीन लूट रहे हैं, बल्कि इंसानों को भी भुखमरी और बेरोजगारी की जंजीरों में जकड़ रहे हैं। ये गुलामी की ही जंजीरें हैं, जो कोई गोरा लेकर नहीं आया।
वक्त का तकाजा कह रहा है कि पहल के लिए दूसरे का मुंह ताकना बंद कर दें। बुराई, नाइंसाफी और जालिम हुक्मरान के खात्मे के लिए किसी मसीहा के पैदा होने का इंतजार ना करते रहें।
जरूरत है अपनी जड़ों को पहचानने की... अपनी मिट्टी को पहचानने की और अपनी ताकत को पहचानने की। हिंदुस्तान... जो हिंदुस्तानियों और उनकी जमीनों से बना है।  अपनी ही जमीन पर गांधी, आजाद और अशफाक उल्ला खां बनकर खड़े हो जाओ। जर्रा-जर्रा गुलामी में डूबा है, तो जर्रा-जर्रा ही आजाद करना होगा। टुकड़ों में इस गुलामी से आजादी नहीं मिल सकती। जागो और हुंकार लगाओ... सिर मत झुकाओ... नाइंसाफी के आगे।

Wednesday 15 June 2011

... बारिश में चीखती बूँदें

सड़क पर बड़ी-बड़ी गाड़ियों से बाहर निकले हाथ... कमसिन बूंदों और अल्हड हवाओं को महसूस कर रहे थे. कुछ बदन सीधे ही इन आसमानी अहसासों से लरज रहे थे. कोई हाथों में हाथ थामे... बरसती बूंदों में अपने प्यार को सींच रहा था, तो दोपहिया पर कोई युगल... वृक्ष और लता सा अपने स्वाभाविक गंतव्य की ओर रवाना था. 
हर ओर युवोत्सव ही नहीं था. बच्चे बस्तों को छाता बनाये कीचड में ही दौड़ रहे थे, तो कोई बाबू अपनी फाइल को सर पर रख तेज क़दमों से चल रहा था. सब्जीवालों का कुछ नहीं, पर उनके ठेलों से लौटती महिलाओं को रिक्शा या फिर सुरक्षित राह की तलाश में मशक्कत करनी पड़ रही थी. कुछ ऐसे भी थे जो गाड़ियों से उड़ते कीचड को परास्त करने में ही अपना सारा कौशल खर्च कर रहे थे. 
सड़क के एक मोड़ पर अस्थायी से टेंट में कुछ ज्यादा ही हलचल थी. एक महिला अपने बच्चे को गोद में उठाये सामानों की उठा-पटक में व्यस्त थी. बच्चा रो रहा था.. पर माँ को किसी और बात की फिक्र थी. जहाँ सामान रखती, वहीं पानी टपकने लगता. बीच-बीच में आसमान पर भी नजर डाल रही थी और आसमान उसकी मुश्किलों की तरह उमड़ता जा रहा था. ना जाने सड़क किनारे के उस टेंट में क्या खजाना था?
महिला के भागीरथ प्रयास जारी थे और उसके बच्चे का रोना भी..अचानक उसके हाथ से मिटटी का बर्तन गिर गया. उसमें रखे सूखे चावल अब कीचड में लथपथ थे.
माँ चुपचाप बेटे को लेकर बैठ गई. हलचल बंद थी और बच्चे का रोना भी, क्योंकि माँ ने बच्चे को अपने आँचल में छिपा लिया था. अब वो जलती हुई आँखों से बरसती बूंदों में बौराई दुनिया को देख रही थी. उसके कानों में कोई जलतरंग नहीं बज रही थी और ना ही हवाएं उसको शरीर को झुरझुरा रही थीं. हाँ.. उसकी आँखों में जमा बूँदें चीख रही थीं.. वो बेबसी की चीख थी.

Tuesday 14 June 2011

जनता से "कारी छिद्रा" कर लें भ्रष्टाचारी

खबर में पढ़ा के रूप घाटी के राजा जगत सिंह का ब्रह्म हत्या दोष शताब्दियों बाद "कारी छिद्रा" के चलते दूर हो गया है. उसी वक़्त एक जुगत बिजली की तरह दिमाग में कौंध गई के जनता और भ्रष्टाचारियों के बीच "कारी छिद्रा" की विधि अपना ली जाए. फिर अनशन से बाबा की जान के लाले नहीं पड़ेंगे और हमारे मनमोहक ईमानदार प्रधानमंत्री जी का कथित तौर पर डरा-सहमा दामन भी आरोपों के छीटों से बचा रहेगा.
दरअसल, राजा जगत सिंह और "कारी छिद्रा" के सम्बन्ध में रोचक जानकारी एक पत्रकार बन्धु की बदौलत नेशनल अखबार और उसके पाठकों को नसीब हुई. राजा जगत सिंह ने १६वीं  शताब्दी में  पंडित दुर्गादत्त नामक ब्राह्मण को आत्मदाह पर मजबूर कर दिया. क्यों, किसलिए में मत जाइये, यही समझ लीजिये जैसे आज का आम आदमी कभी-कभी मजबूर हो जाता है. हाँ, तो इसी के चलते जगत सिंह पर ब्रह्म हत्या का दोष आ गया. सदियों ये दोष चलता रहा. राजा और राजा के वंशज ब्राह्मण के गाँव में कदम नहीं रख सकते थे. लेकिन भला हो इस "कारी छिद्रा" का, जिसने इस पहाड़ी राजा और उसके वंशजों को ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त किया.
क्लीन स्वीप (ये क्रिकेटीय शब्द है और पूरे सफाए के लिए प्रयुक्त किया जाता है ) की इस अद्भुद विधा के जरिये भ्रष्टाचारी नेताओं और जनता के बीच का "वायदा दोष" आसानी से दूर किया जा सकता है.
अमां यार... जब ४००-५०० साल का ब्रह्म ह्त्या का दोष दूर हो गया तो, जनता-नेता-करप्शन के लव त्रिकोण को तो जुम्मा-जुम्मा कुछ दशक ही गुजरे हैं.. ये क्या बड़ी बात है.
मजे की बात ये की "कारी छिद्रा" के चलते अनशन के दीर्घसूत्रीय कार्यक्रम, सरकार और आन्दोलन के अगुवाओं के बीच घात-प्रतिघात, अभद्र संवादों, समितियों, बिलों, अध्यादेशों आदि के प्रस्तुतिकरण का खर्चा बच जाएगा.
और भी अच्छी बात ये के जिस जनता के लिए फिल्म "नूराकुश्ती" चल रही है, उसे शाइनिंग इंडिया में अब दर्शक की जगह मेन कैरेक्टर निभाने का मौक़ा मिलेगा. है ना कमाल का आइडिया.
अब आप सवाल पूछोगे के "कारी छिद्रा" क्या गरीबी, बेरोजगारी दूर कर देगी? विदर्भ और एमपी में मरने वाले किसानों को न्याय दिलाएगी? पास्को में स्टील मेगाप्लांट के लिए नजरबन्द ग्रामीणों से पुलिस और अधिकारी क्या व्यवहार करेंगे? लखीमपुर खीरी थाने में बच्ची की जान लेने वाले लोगों का क्या होगा? बलात्कार के बाद या फिर झूठी शान के लिए लड़कियां यूं ही टुकड़े-टुकड़े होती रहेंगी? ईमानदार पत्रकारों जिन्हें गोलियों से भूना गया या फिर उन अधिकारियों... जिन्हें जिन्दा जला दिया गया, उनके घरवालों को क्या सुकून मिलेगा? क्या गंगा बचाने के लिए जान देने वाले साधू को भी कोई याद रखेगा?
संवेदनशीलों के दिमाग में ऐसे ही ना जाने कितने सवाल उमड़ रहे होंगे.. इंडिया में ज्यादा सोचने पर सवाल ही ज्यादा खड़े होते हैं.. नतीजे और रस्ते नहीं.
अरे भैया "कारी छिद्रा" के जरिये अब तक के सारे गिले-शिकवे मिटा लिए जायेंगे. जनता के काँधे पर भी बड़ी जिम्मेदारी है... सरकार बनाने की. उस पर चुनावी सीजन में रोज-रोज का प्रेशर के अपने मताधिकार का सही उपयोग करें. अमां अभी कहाँ प्रयोग कर लें सही तरीके से. कारी छिद्रा की बदौलत कुछ खादी वाले तो दोषमुक्त नजर आयेंगे. जनता उन्हें चुन लेगी. अब जब "कारी छिद्रा" का आप्शन है, तो फिर करप्शन करने में क्या हर्ज है.. ५०-६० साल बाद फिर दोष मिटा लेंगे. अब ये मत कहिएगा के हमेशा ईमानदार रहने वालों की सरकार बनवाने का वादा करो तो "कारी छिद्रा" पर वार्ता आगे बढे!! 
अमां या... ईमानदार नेता क्या आसमान से टपकेंगे... जानते नहीं क्या "मेरा भारत और यहाँ की जनता महान". उसके लिए ही तो भारत में सारी राजनीति, आन्दोलन, और अनशन होते हैं.. वरना इन नेताओं के पास टैलेंट की कमी है क्या, जो राजनीति के मंच पर उतरते हैं बेचारे... जाकर "इंडियन आइडल" और "राखी के स्वयंवर"  जैसे मंचों को सुशोभित ना कर देते!!


Monday 13 June 2011

"मलंग" यूं नहीं फिरते के खुदा मिल जाए

बता खुदा मैं क्या करूँ वो शब् एक बार आए,
थाम के बाँहों को पहलू में मेरा यार आए.
मैंने की है खता कहो तो सजा मौत मिले,
बस आरजू है यही के  उसको ऐतबार आए.


मुझे नहीं है यकीन अबतलक तन्हाई का,
मेरी हर याद में तेरी महक बेशुमार आए.
कभी यूं भी हुआ के दूर से तुमको देखा,
इन आँखों में अश्क-ऐ-बेबसी हजार आए.

हसीन ख्वाब देखने हैं बस तेरी खातिर,
एक उम्र बाद मैं सो जाऊं वो खुमार आए 
थाम ले रूह, कर ले कैद मुझे खुद में तू
"मलंग" यूं नहीं फिरते के खुदा मिल जाए.





Saturday 11 June 2011

मेरे गाँव के आसमान में खूब तारे हैं

नौकरी की जद्दोजहद और शहर की भागदौड़ में भी कभी-कभी ठेठ भारत से मुलाकात हो जाती है. मैं भी मिला था. मुलाकात का फासला २० सालों का रहा होगा, लेकिन बच्चों जैसी बातों ने ऐसा घोला कि आत्ममंथन हो गया.
मेरा साप्ताहिक अवकाश था और सुबह-सुबह सहयोगी का फोन आ गया. ऑफिस बुलाये जाने कि आशंका के साथ मैंने कॉल रिसीव कर ही ली.सहयोगी के हाय-हल्लो में अनुनय साफ़ झलक रही थी. फिर मुद्दे पे आये साथी ने कहा यार थोड़ी मदद चाहिए थी. मैंने निष्ठुरता से जवाब दिया ऑफिस आने और पैसे के अलावा जो कहे करूंगा! 
उसने कहा मेरे बेटे को ४ घंटे के लिए संभालना है. फिल्म देखने का प्रोग्राम है तेरी भाभी के साथ.. गाँव से आयी है यार जिद पकड़ ली है. मैं बोला बेटे को ले जा साथ में, दिक्कत क्या है? सहयोगी ने कहा वैसे तो वो भी गाँव में ही पढ़ रहा है, पर बहुत बड़ा सवाली है. मैं समझ गया कि आज की शाम का सत्यानाश तय है.तयशुदा वक़्त के साथ मैं शाम सात बजे पहुँच गया. सहयोगी तो इन्तजार में ही था, आते ही मूलभूत आवश्यकताओं की जानकारियां दे निकल लिया. 
बच्चे का नाम व्योम था. उम्र कोई १० साल. उसने आते ही पहला सवाल दागा आप क्या करते है. मैंने कहा अखबार छापता हूँ. व्योम बोला- मंगू चाचा कि तो खबर क्यों नहीं छापी? मैंने कहा उन्होंने ऐसा क्या कर दिया था? ब्योम बोला वो मर गए थे, बहुत दिनों से बीमार थे और गाँव में इलाज नहीं हो पाया.
दूर गाँव के अकेले मंगू की मौत की खबर पहली बार इतनी जरूरी जान पड़ी थी. व्योम का दूसरा सवाल तैयार था- पार्क ले चलेंगे क्या मुझे? इनकार करने कि हिम्मत नहीं थी और सोचा खेल-कूद में सवाल तो नहीं पूछेगा? पार्क पहुचे तो व्योम पास ही बैठ गया. मैंने पूछा खेलोगे नहीं? उसने कहा- बाकी और कोई बच्चा ही नहीं है! मैं बोला रात हो गई है, सब घर में ही होंगे. व्योम की बात में शिकायत थी.. दिन में भी तो नहीं थे? मैंने अंदाजा लगाया कि ट्यूशन पढ़ रहे होंगे! व्योम बोलते-बोलते सोचने लगा कि ये बच्चे खेलते कब हैं, हम तो रात में भी लुका-छिपी खेलते हैं. व्योम अनवरत जारी था. मैं निरुत्तर सा आसमान ताकने लगा. व्योम ने फिर पूछा क्या देख रहे हैं चन्दा मामा? नहीं तारों को.. मेरा अनिश्चित सा जवाब था. 
फिर सवाल आया- वो तो दिखाई नहीं देते? जवाब दिया कि पोल्यूशन ने निगल लिया है. 
अब व्योम उदास था, बच्चों के दर्द को बयाँ किया- इस जगह से अच्छा तो हमारा गाँव है, बच्चे खूब खेलते हैं, दिनभर हैंडपंप का पीनी पियो, नदी में नहाओ, पेड़ों पर चढो, खेतों में भागो, वहाँ मिटटी है, धुंआ नहीं. 
व्योम ने फिर कहा- और तो और हमारे गाँव के आसमान में तारे भी बहुत हैं. मेरा दिमाग बच्चे कि बात से शून्य हो गया.
इस बीच दोस्त फिल्म से वापस आ चुका था. मैंने व्योम को घर छोड़ा और वापस उसी पार्क में आकर बैठ गया. आसमान में सितारों को खोजता हुआ. चाँद और बादलों की सुन्दरता मेघदूत में दिए वर्णन से ज्यादा अद्भुत थी. १० मिनट में ये आसमान हजार शक्लें ले चुका था. बचपन में आसमान में हाथी, बाबा और पेड़ों को तलाशता था, आज 2० सालों बाद फिर वही काम कर रहा था. फिर अचानक आस-पास से गुजरती गाड़ियाँ और उनके हार्न ने मेरा बचपन मुझ से झपट लिया. ऐसा लगा जैसे ये रोशनी और आवाज आसमान को निगल रही हों. गौर से देखा, तो आसमान में तारे मुश्किल से नजर आ रहे थे.
आधुनिक और सुविधासंपन्न शहर में रहने वाला 'मैं नौकरीपेशा' आज बहुत कंगाली महसूस कर रहा था, क्योंकि मेरे मुठ्ठी भर आसमान में तारे भी नहीं थे.
गाँव जन्नत लग रहा था, क्योंकि व्योम के गाँव के आसमान में तारे बहुत हैं... और बीमारी से मरने वाले मंगू कि याद उसे आज भी है..





Friday 10 June 2011

कसक: बस... मुलाक़ात की बात पर वो शरमा जातीं हैं


हमारे मित्र पांडे जी को इश्क हो गया है. इस इश्क में आदतन नमक मिर्च झोंकने से पहले कहानी के मुख्य पात्र की डीटेल्स प्रस्तुत कर रहा हूँ.
शादीशुदा पांडे जी को 'बगुला भगत' जानो,  'थल'- परियों के अनन्य प्रेमी. मुस्कुराहट और नजर के तीखे वारों को बचा पाने की फितरत नहीं है, घायल हो के ही दम लेते हैं... जब से हम जानते है, तब से इसी संक्रामक बीमारी के शिकार रहे हैं. गोपियाँ भी जानती हैं की जुबानी जमाखर्च से आगे बढना पांडे जी के बस की बात नहीं है, लिहाजा बेझिझक फायदा उठातीं हैं.
आधुनिकता के अंधड़ में भी पांडे जी जैसा जमीनी आदमी बच गया है. ३८ की उमर में एक सह्कर्मिनी की अनुकम्पा से चैटिंग और ई-मेल कला में निपुण हो रहे हैं. आजकल, कभी पांडे जी के चेहरे पर ख़ुशी रहती है... कभी अचानक मायूसी आ जाती है. राजनेताओं जैसी भावभंगिमा की वजह जानने के लिए हम उनके ऑफ़ का इन्तजार करते रहे. ऑफ के दिन भांग का अंटा लगाने के बाद पांडे जी... गहरी से गहरी बात पान की पीक के साथ उगल देते हैं. 
सभी की तनख्वाह हाल ही आयी थी. लिहाजा, दिन भी जल्दी-जल्दी गुजरे. पांडे जी का ऑफ़ भी आ गया. अंटा लगाने के बाद पान खाकर दार्शनिक अंदाज में सामने के नाले को निहारने लगे और बात की... सूचना क्रांति की. बोले- पंडित... देस बहुत तरक्की कर गया है. इन्टरनेट को ले लीजिये. बैठे हैं बनारस और 'चैटिया(चैटिंग)' रहे हैं... दिल्ली में. बोले-भैया हर मंत्री संतरी रोजे 'टूट-सूट (ट्वीट)' करते हैं, अपनी राय देते हैं, दूसरों की लेते हैं. अमां बड़े-बड़े सरकार हिलाऊ आन्दोलन हो जाते हैं और सड़क पर पत्ता नहीं खड़कता.
मैंने कहा बाबा रामदेव हरिद्वार से अस्पताल पहुँच चुके थे, अब क्या निकल ही लेते. आप भी... बोलते हो पत्ता नहीं खड़कता. 
पांडे जी टेढ़े हो गए... अमां वो तो दुनिया को दिखाने की चीज है, अस्पताल नहीं जायेंगे तो दुनिया जानेगी कैसे की वाकई अनशन पर हैं...सरकार और जनता तवज्जो कैसे देगी.
पांडे जी आगे बोले, भईया कुछ चीजें दबे-छुपे भी हो जाती हैं... कुछ बूझते  हो. किस्सा-ए-इश्क की पहली परत उघड़ रही थी. कहने लगे... अबे कोई झन्नाट आइटम नहीं मिला क्या? दिनभर तो इंटरनेट पर घुसे रहते हो. पांडे जी तन गए- हम तो आज-कल खूब बतिया रहे हैं इंटरनेट पर, हमारी बातों पर तो आजकल दर्जनों लड़कियां मरी जाती हैं.
मैंने कहा-ऐसा क्या कह दिया... अमर सिंह तो नहीं बन गए थे. पांडे जी बोले- अबे खाली बतियाना थोड़े ही है... बाकायदा इश्क की गाडी हांकेंगे. मैंने कहा- भाभी का क्या होगा? बोले- मंहगाई की मार है.. बेचारी सब्जी, दाल, चावल के हिसाब में ही महीना गुजार देती है.
मैंने कहा- अपनी प्रेमिकाओं में एकाध का नाम तो बताइए. पांडे जी चहक कर बोले हनी ००१ है, स्वीटी२७ है, मून८३ है. बहुत हैं यार... ऐसे ही समझे हो क्या? 
मैंने कहा- पांडे जी लडकियां हैं, या खगोलविदों के ढूंढी हुईं आकाशगंगाओं के नाम. पांडे जी का मुंह लाल हो गया, कहने लगे- अरे चाँद तो हम ही हैं न. उत्साह से बोले- दिन में दस लड़कियों की तस्वीर आती है शादी के लिए.. हिरोईनी जैसी दिखती हैं और कहती हैं.."वी कैन मीट". 
मैं समझ गया दिनभर फ्री चाय के लिए गले पड़ी "मंजरियों" ने पांडे जी का अकाउंट शादी डाट कॉम पर बना दिया है और चैटिंग का चस्का लगा दिया है. मैंने पूछ ही लिया, तो भाभी जी से चोरी कर के ही मानेंगे? पांडे जी बोले- यार बर्स्कुलोनी, टाइगर वूड्स और शेन वार्ने क्या ऐसे ही तरक्की कर गए हैं. बहुत प्रेरणा की जरूरत होती है, ऐसे ही तो मिलती है!
मैंने पूछा अब क्या? पांडे जी बोले- यार मुलाक़ात हो तो बात आगे बढे, परेशानी ये है की मिलने का वक़्त-जगह की बात करो तो शर्मा जाती हैं... हरी बत्तियां बुझाकर (लॉग आउट ) भाग जाती हैं. पांडे जी ने ताल ठोंकी और कहा-कब तक भागेंगी, कभी तो मेरी तमन्ना उन्हें खींच लायेगी... और फिर पांडे जी ने गहरी साँस लेते-लेते ग़ालिब को याद किया -
" आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब, दिल का क्या रंग करूँ खून-ए-जिगर होने तक.
हमने माना की तगफ्फुल(इनकार) ना करोगे लेकिन, ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को खबर होने तक"

तमाशबीन 'ऑफिस वालों-वालियों' की लगाईं इस आग में जलते और वर्चुअल सुंदरियों के पीछे पागल हो चुके पांडे जी के सुधरने के मुश्किल हालात देखे, तो मैंने पांडे जी के लिए दुआ के रूप में बशीर साहब की कुछ लाइनें बुदबुदा दीं-

"खुश रहे या बहुत उदास रहे, जिन्दगी तेरे आस-पास रहे 
चाँद इन बदलियों से निकलेगा, कोई आयेगा दिल को आस रहे."


Thursday 9 June 2011

गुलामी कबूल... अब इन्कलाब का ऐलान

४ जून की मध्यरात्रि में सरकार सोते हुए सन्यासियों पर डंडे बरसाने लगी... दमन का ये दर्पण अगले पूरे दिन देश में जनता की वो औकात दिखता रहा, जो उसने बैलेट पर गलत ठप्पा लगते-लगाते किस्मत पर चस्पा कर ली है. इस दबंगई के दंश से तिलमिलाए सत्य सारथियों को आग्रह आक्रोश में बदलना पडा. अब रालेगन सिद्धि के सत्याग्रही ने... आजाद और बिस्मिल सरीखे तेवर में दूसरे इन्कलाब का ऐलान किया है. ये ऐलान कबूलनामा है इस बात का कि हम गुलाम हैं. पेंशन और न्याय के लिए संवैधानिक संस्थानों  के चक्कर लगाते आम इंसान को ये गुलामी महसूस होती है. उस किसान का परिवार भी ये कटु सत्य भोगता है, जिसने सरकार को तबाह हो चुकी खेती का सबूत देने के लिए ख़ुदकुशी कर ली.. वो माँ तो और भी मजबूर है जिसकी गोद में दुधमुंहा बिलखता है, पर भूख की आग ने दूध ही सुखा दिया है.

Tuesday 7 June 2011

चलो... जूतमपैजार की रसम तो पूरी हुई

इसी का तो इन्तजार था... आखिर बाबा रामदेव का महायज्ञ २०वीं शताब्दी में 'रामबाण' बन चुके 'जूते' की आहुति के बगैर कैसे पूरा हो सकता था. भला हो जनार्दन रेड्डी का... जिन्होंने गरमागरम माहौल में प्रेस कांफ्रेंस कर जूतमपैजार की रसम को आवश्यक मौक़ा मुहैया करवा दिया. इस बार जूता मारने के लिए शिक्षक सुनील कुमार यानी 'मारीचि' को 'नारद' का रूप धर पत्रकार सभा में शामिल होना पड़ा. किरदारों की उलटा पलटी पर गौर मत फरमाइए. आज के 'कलियुगीन' डेमोक्रेटिक इंडिया में इन 'सतयुगीनों'  को भी दलबदल की स्वतन्त्रता है. 
खैर... मारीचि का 'रामबाण'  इस बार प्रत्यंचा पर चढ़ा ही रह गया. दूरदर्शी खबरनवीसों ने धर लिया. पर जूते को 'रामबाण' की उपाधि यूं ही नहीं दी गई है. लगे या न लगे... 'पोलिटिकल करेक्टर' तो पैरों से उतरने के साथ ही 'ढीला' कर देता है.रसम पूरी हो गई. जूते के आभामंडल से जुडा हर चेहरा बुद्धू बक्से पर चमकता दिखाई दिया. महिमा ही निराली है... 'राइ को पर्वत करे और पर्वत राइ माहि'.
इस परम्परा के गौरवशाली इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे की पावर फुल देश के पावर फुल आदमी की भी उतर चुकी है. लेकिन, बुश भैया भी कमाल के थे दो-दो वार बचा गए... उनके देश की उन्नत रक्षा तकनीकों का असर रहा होगा. वेनजियाबाओ, पी चिदम्बरम, आडवाणी जी, स्वामी अग्निवेश, नवीन जिंदल जैसे कद्दावर भी आंशिक या पूर्णतया प्रभावित रहे हैं.
जूता चलना मतलब... किसी भी प्रयास के सफल या असफल होने की पक्की गारंटी. अब बाबा और सरकार के बीच कालेधन पर चल रहा मंथन कुछ न कुछ रत्न जरुर उगल देगा. हाँ मौके की नजाकत भांपते हुए वासुकी की पूँछ बीजेपी ने भी धर पकड़ी है... प्रमुख विपक्षी पार्टी अभी योगी के सहयोगी की भूमिका में है.
इस बीच लोगों का  उद्धार करने वाले जूते को अपने भविष्य की चिंता होने लगी है. शादियों में जीजा-साली की कमसिन लडाई के दौर से गुजरता, वो आज राजनीतिक गलियारों में उछल रहा है. जिसे देखो वही ताने खड़ा है. 
ये और बात है की चिरकाल से ही वो आदमी की औकात बताने वाला आइना रहा है... पर आजकल अपने बदले हुए जॉब प्रोफाइल में बेकदरी से बेचैन है. चैन-सुकून सब लुट जता है. जूतमपैजार की रसम अदायगी के बाद... न्यूज़ चैनल्स पर दिन-रात शोर मचता है... फलाने को फलाने ने जूता मारा..

Sunday 5 June 2011

ये यंग मेन इतना एंग्री क्यों है

हाल ही में कुछ ख़बरें अख़बारों के पहले पन्ने पर दिखाई दीं. ख़बरें क्या थीं... समाज में पनप रहे कैंसर की नयी प्रजाति का संकेत थीं. भोपाल के एक किशोरवय ने अपनी माँ और बहन को क़त्ल कर दिया था. दिल्ली का एक युवक अपने कथित बहनोई के माँ-बाप का हत्यारा बना घूम रहा था. और समाज से सरोकार रखने वालों का सर घूम रहा था सोचकर कर की ये यंग मेन इतना एंग्री क्यों है. 
भोपाल के जिस युवक ने अपनी माँ और बहन को हलाक किया, वो परीक्षा में फेल हो गया था. माँ बहन ने उसे डांटा भी था, उनकी गैरमौजूदगी में घर पर गर्ल फ्रेंड को घर पर लाने के लिए ... इतनी सी बात में न जाने क्या शैतानियत भर गई उसके दिल दिमाग में... शातिर अपराधी की तरह क़त्ल को अंजाम दे डाला. साथ देने वाला भी यंग मेन था. दोस्त को रोका नहीं साथ देने चल दिया. दिल्ली के दुर्गेश का किस्सा भी यूँ ही था. बहन ने प्रेमी के साथ गुजर बसर शुरू कर दी थी. बात नागवार गुजरी तो रिश्ते में बहनोई बन चुके युवक के माँ-बाप को गोलियों से भून दिया. 
दोनों ही मामलों की तह में जाने पर पता चला की गुस्सा असफलता का था. एक को एक्जाम में फेल होने का और एक को बेरोजगारी और युवा समाज में अपमान का. पर ये गुस्सा महज इन बातों से ही नहीं बिगड़ा था.
इस कातिल गुस्से के पीछे के कारण विस्तृत है. मनोविज्ञानियों के मुताबिक गरीबी और बेरोजगारी के इतर युवाओं का एकांकीपन, अभिभावकों से बढती दूरी, छोटी असफलताओं पर आवश्यक सहयोग की जगह कॉम्पिटिशन की उलाहना, ऐश्वर्य की अभिलाषा आदि भी उनके जीवन पर गहरा असर डाल रही है. अगर ये कहा जाये की अज्ञान, अभाव और आवेश इस यंग मेन को इतना एंग्री बना रहा है...तो गलत न होगा. 
उदाहरण के लिए पटियाला को ले लीजिये. देश का एक विकसित शहर, जिले में बसने वालों की तादात १८ लाख है, युवा बहुसंख्यक हैं. यहाँ के एसपी सिटी नरिंदर कौशल ने कहा की रोजगार कार्यालय के अनुसार जिले में ३४,००० युवा बेरोजगार हैं.और ये बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं. बीते वर्षों में जो अपराधी कौशल के हत्थे चढ़े उनमे २०-३५ वर्ष के ज्यादा हैं. कौशल बतातें हैं की गरीब ही नहीं... रईसजादे भी अपराध के दलदल में हैं. गरीबों को गरीबी और बेरोजगारी, तो जरूरतें और नशे की आदतें रइसजादों को अपराधियों की जमात का हिस्सा बना रही है. 
एक और जिक्र जरूरी है. काश्मीर के उत्तरी इलाके से तीन आतंकवादियों को पकड़ा गया. इनके पास हथियार तो ख़ास नहीं थे, हाँ नशे की खेप बहुत बड़ी थी.पता चला की मुख्यधारा में शामिल होने के साथ ही इनका मकसद युवाओं को नशे का आदी बनाना था, ताकि उनका उपयोग बाद में मनमाने तरीके से किया जाये. जम्मू-कश्मीर ही नहीं हरियाणा, हिमाचल, दिल्ली, राजस्थान, पंजाब के युवा बड़ी तादात में इनकी गिरफ्त में हैं. इनमे गरीब हैं , अमीर हैं, शिक्षित भी हैं और बेरोजगार भी.. जाहिर तौर पर नशे की लिए सभी आसान शिकार हैं. 
दिल्ली की बात करें, तो आतंकियों की धरपकड़ के अलावा पुलिस महकमे के पास और भी बड़ी जिम्मेदारियां हैं. दिल्ली पुलिस कमिश्नर बीके गुप्ता ने हाल ही में बताया की बच्चों खासतौर पर युवाओं में बढ़ रहे अपराध को लेकर महकमा बेहद सक्रिय है. गरीबी, नशे और बेरोजगारी की भंवर में फंसे युवाओं के लिए जीविकोपार्जन के उपायों, मनोविज्ञानिक सलाह और शिक्षा के उन्नत कार्यक्रम चलाये जायेंगे, ताकि उनका रुख अपराधों की और न हो.
अध्ययन के मुताबिक १५-२४ की उम्र के ९० प्रतिशत युवा गरीब देशों में रहते है. गरीबी और रोजगार की नाउम्मीदी इन जैसे युवाओं के लिए जीवन मरण का प्रश्न है, लिहाजा अपराध के दलदल में ये आसानी से फंस सकते हैं.  भारत के सन्दर्भ में देखें तो दुनिया का ६० प्रतिशत युवा वर्ग भारतीय है. गरीबी, बेरोजगारी की समस्याओं से वो भी जूझ रहे हैं.२००७ में मिले कुछ महत्वपूर्ण आकड़ों का जिक्र भयावह सच के साक्षात्कार के लिए जरूरी है, उस साल ३४,५२७ युवा अपराधियों को पूरे हिन्दुस्तान में पकड़ा गया, इनमें ३२,६७१ लड़के और १८६५ लड़कियां थीं. 
लब्बोलुआब ये... के जिस यंग मेन की ताकत से देश के दूरद्रष्टा २०२० तक सपनों के भारत को साकार करने की सोच रहे हैं... वो इन खतरनाक तथ्यों से अनजान तो न होंगे और देख कर अनदेखा करना... तात्कालिक कदम न उठाना... आत्मघाती आचरण ही कहा जाएगा. क्योंकि, २०२० तक देश चलने वालों को ४ करोड़ ७० लाख की तादात वाले उस 'युवा पावर हॉउस' को संचालित करना होगा, जो यंग मेन के एंग्री होने की वजह से फटा तो... विकास गाथा विनाश गाथा में तब्दील हो जायेगी... 

Saturday 4 June 2011

मुफलिसी के वो अय्याश दिन

नौकरीपेशा... खासतौर पर मीडियाकर्मी हर रोज ऊपरवाले को मनाते हैं, इस बात --के लिए कि मुफलिसी के दिनों को उनकी जिंदगी में आने की मंजूरी ना मिले। लेकिन, मेरा कहना है की भइया एक बार बेरोजगारी और तंगहाली में जिन्दगी का मजा चख लेना भी जरूरी होता है। ये मुफलिसी कुआरेपन आए तो बात ही कुछ और है...क्योंकि केवल एक पेट के लिए ही अय्यारी करनी पड़ती है। जी हां... अय्यारी, धारावाहिक चंद्रकांता वाली नहीं ... बोल-वचन से ठसाठस आधुनिक अय्यारी।
शुरूआती साल-डेढ़ साल में उप-संपादक की उपाधि लिए जब सीना और दिमाग दोनों फलने-फूलने  लगे, ठीक उन्हीं दिनों नौकरी पर खुद की तुनकमिजाजी भारी पड़ गई, और तो और... देश के पुनर्निर्माण की मेरी भावी योजनाओं पर भी तुषारापात हो गया। उम्मीद लगाए बैठे देश के लिए ये एक बड़ा झटका था... खास तौर पर मेरी नजर में।  मेरा नुकसान तो तात्कालिक  था। खैर...तनख्वाह आए महज एक-दो दिन ही गुजरे थे... लिहाजा आधी तो सलामत जेब में खनखना रही थी, सो हम भी ऑफिस से रवाना हो गए। रास्तेभर संपादक, अपनी किस्मत और नाजों से पाले गुस्से को कोसते पास के अपने किराए के कमरे में दाखिल हो गए। लानत-मलानत का ये सिलसिला अटूट लग रहा था, लेकिन असमय भूख ने चेताया। फिर दरवाजे पर ताला लगाया और सड़क पर आते-जाते दूसरे ‘बेमकसद नौकरीपेशा’ लोगों को जी-भर दुत्कारा। वैसे परनिंदा से हमेशा ही मन को अजीब सी शांति मिलती थी। खैर... चौराहे के किनारे शाकाहारी होटल को ताकने लगे, पर पास ही हाला, प्याला और बारबाला से सजा एक दूसरा बोर्ड ज्यादा लुभा रहा था। यहां समस्या और विकट हो गई। जेब में पड़े रुपयों का वजन दिमाग को खर्चे के स्पष्ट संकेत नहीं भेज पा रहा था। इतने में हमारे प्रसिद्ध हथौड़ाछाप मोबाइल पर लंगोटिया यार ने घंटी बजा दी। ऐसा लगा मानो डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो। बड़ी खबर से सूचित करने के साथ ही हमने कह दिया अब कुछ दिन का ब्रेक लेकर ही दूसरी नौकरी पकड़ेंगे। यार तो यारों का यार निकला। छूटते ही बोला... फिक्र मत कर आखिर दोस्त किस दिन के लिए होते हैं। पहली ट्रेन पकड़ और आ जा। फैसला हो चुका था... आज की रात पनीर का साथ हाला और प्याला देंगे... हाँ बालाओं का कोई किरदार इस एपिसोड में नहीं था। सारा माल-असबाब पैक कर घर आ गए। आधी बोतल भीतर जाते ही साथी पत्रकारों को  फैसले और आगामी योजनाओं से अवगत करा दिया। देर रात के चिंतन और क्रियाकलापों ने अगली सुबह को पूरी तरह प्रभावित किया था। लेकिन, निश्चय पक्का था इसलिए बस और ट्रेन के मिले-जुले सफ़र की बदौलत गृह नगर के स्टेशन पर उतर गए। हवा की महक चिर-परिचित थी... ये हमेशा ही अभूतपूर्व होती है। दोस्त को फोन लगाया, तो वह आवश्यक काम में मशरूफ था। थोड़ी जलन और बहुत ज्यादा खुशी हुई। जलन उसके नौकरी पर बदस्तूर लगे रहने और खुशी इस पर कि पैसे का रोना चाहकर भी नहीं रो सकता... मतलब हर शाम का जुगाड़ पक्का। छुट्टी की पहली शाम शानदार थी, बाकि शामों में रेस्टोरेंट कि जगह सरयू नदी के तट ने ली, चाय और सिगरेट का लुत्फ़ जारी था। लौटते तो घरवालों से अल्पकालिक वार्ता होती, जो हमेशा की तरह कहते रहते... चिंता मत करना। इस संबंध में आदतन अपने अदम्य साहस की डींगे पीटता मैं छत पर चला गया। काफी देर से एक बात दिमाग में डंके बजा रही थी... लंगोटिया जाते-जाते कह गया था कि कल ससुराल जाना है। मेरा तो परेशानी से पीछा छूटता ही नहीं, अब अगले दिन की व्यवस्था कैसे होगी। यही सोचकर आसमान आकाशगंगाओं में ध्रुव तारे को तलाशने लगे। जेब में पड़ी इकलौती सिगरेट को बड़ी देर से निकल कर वापस रख रहे थे। मनी मैनेजमेंट और चीजों का सही उपयोग करना इस वक्त बेहद जरूरी था। खैर... अढ़ाई रुपए की धूम्रपान दंडिका ही थी, कोई राजदंड नहीं... कि राजपाट फुंक जाता, सो वो भी सुलगा ली। अब असली औकात में आकर सोच रहे थे कि किसके सामने नौकरी मांगने के लिए जाएं, इस बीच परिचित पत्रकार दोस्त संदेशा आया। नई नौकरी कि व्यवस्था लगभग हो चुकी थी। आसमान अब और भी हसीन लग रहा था। खुमारी भी चढ़ रही थी... देश के नवनिर्माण के संबंध में ज्यादा कुछ  सोच नहीं पाया.. सो गया। मुफलिसी के  उन अय्याश दिनों में घर की छत पर निद्रा सुख को बयां कर पाना आज भी मुश्किल काम है।

बारूद की दहशत से जूझती दुनिया

कभी आदमी की जरूरत थी.. धूल-धुएं के बीच दौड़ते-भागते रोजी-रोटी कमाना माना। आज बारूद और जले हुए लोथड़ों के बीच गुजर-बसर मजबूरी ही है। वजह आतंकवाद ... जो बीते दशकों में अच्छी तरह फूला फला और अब पितामह माने जाने वाले देश के लिए भी भस्मासुर बन चुका  है। विश्व इतिहास में सबसे लंबी तलाश के बाद आतंक का पर्याय ओसामा मारा गया। जानकार और खबरची बोलने लगे ‘आतंक अब बिन लादेन’। लेकिन , बूढ़े और किडनी कि समस्याओं से पीडि़त लादेन के विचार तब भी इंसानियत के लिए खतरा थे और अब भी... क्योंकि खात्मा लादेन का हुआ... उसके विचारों का नहीं। वैसे भी मानव इतिहास में अब तक विचारों के क़त्ल का कोई सबूत नहीं मिला है।
ओसामा भी अपने पीछे विचार छोड़ गया है। शर्मीला और तहजीब से रहने वाला तेज दिमाग ओबामा, जो वक्त के साथ-साथ दुनिया में आतंक की परिभाषा बन गया... ये जरूर जानता होगा कि हमेशा के लिए वो भी जिन्दा नहीं रहेगा। उसकी कातिल सेना के सेनापति अभी भी जिंदा हैं... मकसद भी जिंदा है...जाहिर तौर पर योजनाएं भी जिंदा होंगी.. दुनिया को दहशतजदा करने की। नतीजतन, आतंकवादियों की इस कुख्यात कातिल कौम के भी कई हिस्से हो गए हैं और उन्हें भी कई नाम मिल गए हैं...दुनिया के  आतंकी , अफगानिस्तान के आतंकी , कश्मीर के आतंकी और पाकिस्तान के आतंकी ..वगैरह-वगैरह। मकसद तो एक ही है इंसानियत को बारूद और कत्लेआम के जरिए दहशतजदा करना।
9/11 के हमले में 3000 लोगों का कातिल ओसामा दुनिया का सबसे नामुराद शख्स था और अचानक इंसानियत के रखवाले में तब्दील हो चुके अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन। अमेरिका और यूएन के नेतृत्व में आतंकियों का दमन शुरू हो गया। ओबामा ने व्हाइट हाउस में कुनबा बसाने के बाद मुस्लिम राष्ट्रों को भी आतंक के खिलाफ लड़ाई में इंसानियत के साथ खड़ा होने के लिए प्रेरित किया। मिस्र यात्रा इसी सिलसिले में की गई थी। दुनिया के  एक होते ही हजारों आतंकी योद्धाओं का सेनापति कुछ ही सालों में 100-200 वफादारों के साथ छिपने के ठिकाने ढूंढता फिर रहा था। आखिरकार.. लाखों इनकारों के बावजूद उसका आखिरी ठिकाना पाकिस्तान में ही मिला... एबटाबाद में अमेरिकी सैनिकों ने उसे घर में घुसकर खत्म कर दिया। ये आतंक की कहानी का मध्यांतर था। ओसामा के बिना आतंक की कल्पना करना कुछ घंटों का सुकून तो ले आयी, लेकिन पडोसी के चेहरे से वो पर्दा उठ गया, जिसमें वो अपने देश के नासूर को दुनिया से छिपाए घूम रहा था. दुनिया ने देखा की किस तरह आतंक के भस्मासुर को पालने में पाक ने खुद के जिस्म को जार-जार कर लिया है। पखवाड़ेभर में बेगुनाह पाकिस्तानी नागरिकों और सैनिकों पर तालिबानियों के फिदायीन और अन्य प्रचलित आतंकी हमले शुरू हो गए। बेगुनाहों की जान लेने के साथ-साथ आतंकियों ने सैन्य ठिकानों को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया। अब पकिस्तान के सामने हर वक़्त सहमा सहमा इन्तजार है अगले धमाके का, कभी इन धमाकों की बुनियाद को इस देश के हर रहनुमा ने देशभक्ति के नाम पर पूरी शिद्दत से सींचा था। इस देशभक्ति में पडोसी पर हर मुमकिन हमला करना भी शुमार था, जिसकी जिम्मेदारी को बेपरवाही से टाल जाना बीते दशकों में पाकिस्तान कि दिलकश अदा बन गई है। खैर ये और बात है कि हिंदुस्तान में कत्लेआम के जिम्मेदार कातिल अब सरेआम कबूल कर रहे है कि क़त्ल कि ये तालीम उन्हें पकिस्तान की सरजमीं पर मिली है।
दशकों से विश्वासघात कि ये दुश्वारियां झेल रहा आम आदमी रोज की धमकियों और विस्फोटों का आदी होता जा रहा है। प्रधानमंत्री विदेशी मित्रों के साथ मिलकर आतंक को सख्ती से नेस्तानूबूत करने की घोषणाएं करते हैं। दूसरी ओर, बर्फीली घाटियों से होता हुआ आंतक ये बारूद दिल्ली और ऐसे शहरों कि सड़कों पर बिछ गया है। रोजी-रोटी के लिए घर से निकलते मर्द के लिए पहले भी बीवियां प्रार्थनाएं करती थीं, लेकिन सकुशल लौटने को लेकर आशंका अब ज्यादा डराने लगी है... इसका भी कारण आतंकवाद ही है। संसद, हाईकोर्ट, रेलवे स्टेशन, फाइव स्टार होटल, बस स्टैंड कोई भी जगह सुरक्षित नहीं रही। खुफिया तंत्र अक्सर फेल ही हो जाता है और आतंक निरोधक दस्ते धमाकों के बाद ही पहुंचते हैं। भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी को खत्म करने में सरकारें गुजर रही हैं और पीढिय़ां भी। हुक्मरानों को इनसे तत्लकाल  निपटना होगा, ताकि बारूद से घुले इस माहौल में ये समस्याएं चिनगारी का काम न करें ।