हुक्मरां शैतान सा, न कोई गुलाम चाहिए
जो हमेशा हक की कहा करे, ऐसा कलाम चाहिए।
संगीन से डरे कभी, न सहे वो जुल्मो जलालतें
जो खुदी से मुल्क संवार दे ऐसा अवाम चाहिए।।
अपनी मिट्टी की फितरत को ही नहीं पहचान पाएंगे, तो जाहिर सी बात है कि कदम जमाने और आशियां बसाने में मुश्किल आएगी ही।
शायद भूल गए हैं कि जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने के लिए हिंदुस्तानी को किसी समाजसेवी या बाबा की जरूरत कभी नहीं पड़ी थी। तारीखें आज भी बोलती हैं... हिंदुस्तानी ने हिंदुस्तान के लिए बिना शर्त सिर्फ इस उम्मीद में अपने खून को मिट्टी से सान दिया कि एक ना एक दिन ये कुरबानी रंग जरूर लाएगी। 29 साल का जवान मंगल पांडे अगर अपनी जान की खातिर, दूसरे हिंदुस्तानी की पहल का इंतजार करता तो क्या होता? 29 मार्च 1857 को कोलकाता के करीब बराकपुर छावनी में शुरू हुई आजादी की जंग अंग्रेजों के तख्त को कभी दरका नहीं पाती।
नमक सत्याग्रह के लिए 12 मार्च 1930 को दांडी यात्रा पर भी गांधी अकेले ही निकले थे... 24 दिन और 390 किलोमीटर की वो यात्रा जब पूरी हुई, तो हर तरह लाखों सत्याग्रही गांधी के साथ खड़े थे।
सैकड़ों अंग्रेज जवानों ने वहां भी लाठियां बरसाईं थीं.. लेकिन गांधी और वहां मौजूद हर हिंदुस्तानी का इरादा फौलादी हो चुका था.. जिसे लाठियों और गोलियों से भेदना नामुमकिन था।
आजादी में अपनी दुल्हन देखने वाले दीवाने भगत सिंह को जान की परवाह होती, तो उसकी फांसी अंग्रेजों के गले का फंदा ना बनती। महज 23 साल के भगत, राजगुरू और सुखदेव की फांसी को गुमनाम रखने के लिए अंग्रेजों ने लाख जतन किए। लेकिन, मौत की तरफ मुस्कुराते हुए बढ़ते उन मतवालों के गीत हिंदुस्तानी युवाओं की नसों में आग बनकर उतर गए। उस आवाज का लावा अंग्रेज शासन की हर चौकी को राख कर गया।
अशफाक उल्ला खां और राम प्रसाद बिस्मिल की दोस्ती किसी भी मिसाल से बढ़कर है... शायद आज के हालात देख उन्हें शर्म से ही मौत आ जाती।
ये सारी बातें इसलिए कि हमारी यादाश्त लौट आए। हम हिंदुस्तान में रहते हैं... चांद पर नहीं और अगर वहां भी इतने ही खुदगर्ज रहेंगे, तो आजाद आशियां वहां भी नहीं बसेगा।
ये काले अंग्रेज गोरों से ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि वो काले रंग की कमजोरियों और ताकत से वाकिफ हैं। ये न केवल अपनी जमीन लूट रहे हैं, बल्कि इंसानों को भी भुखमरी और बेरोजगारी की जंजीरों में जकड़ रहे हैं। ये गुलामी की ही जंजीरें हैं, जो कोई गोरा लेकर नहीं आया।
जो हमेशा हक की कहा करे, ऐसा कलाम चाहिए।
संगीन से डरे कभी, न सहे वो जुल्मो जलालतें
जो खुदी से मुल्क संवार दे ऐसा अवाम चाहिए।।
अपनी मिट्टी की फितरत को ही नहीं पहचान पाएंगे, तो जाहिर सी बात है कि कदम जमाने और आशियां बसाने में मुश्किल आएगी ही।
शायद भूल गए हैं कि जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने के लिए हिंदुस्तानी को किसी समाजसेवी या बाबा की जरूरत कभी नहीं पड़ी थी। तारीखें आज भी बोलती हैं... हिंदुस्तानी ने हिंदुस्तान के लिए बिना शर्त सिर्फ इस उम्मीद में अपने खून को मिट्टी से सान दिया कि एक ना एक दिन ये कुरबानी रंग जरूर लाएगी। 29 साल का जवान मंगल पांडे अगर अपनी जान की खातिर, दूसरे हिंदुस्तानी की पहल का इंतजार करता तो क्या होता? 29 मार्च 1857 को कोलकाता के करीब बराकपुर छावनी में शुरू हुई आजादी की जंग अंग्रेजों के तख्त को कभी दरका नहीं पाती।
पांडे के प्राण स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ की आहुति बन गए, ताकि वो ज्वाला और धधके। शहादत ने न केवल मंगल पांडे को अमर कर दिया, बल्कि उस पहले कदम को भी... जो आजादी की ओर उठे थे।
फर्स्ट क्लास से दुत्कारकर थर्ड क्लास में भेजे जाने के बावजूद अगर मोहन दास करमचंद गांधी पीटरमारिट्जबर्ग रेलवे स्टेशन पर चुप बैठ जाते... तो? वो घटना किसे याद रहती? अंग्रेजों को इस बात का अहसास कैसे होता कि इंसान का काला रंग उसके निम्न होने की निशानी नहीं है? गांधी आवाज न उठाते, तो दक्षिण अफ्रीका में नरक भुगत रहे "कालों" को न्याय मिलता?नमक सत्याग्रह के लिए 12 मार्च 1930 को दांडी यात्रा पर भी गांधी अकेले ही निकले थे... 24 दिन और 390 किलोमीटर की वो यात्रा जब पूरी हुई, तो हर तरह लाखों सत्याग्रही गांधी के साथ खड़े थे।
सैकड़ों अंग्रेज जवानों ने वहां भी लाठियां बरसाईं थीं.. लेकिन गांधी और वहां मौजूद हर हिंदुस्तानी का इरादा फौलादी हो चुका था.. जिसे लाठियों और गोलियों से भेदना नामुमकिन था।
आजादी में अपनी दुल्हन देखने वाले दीवाने भगत सिंह को जान की परवाह होती, तो उसकी फांसी अंग्रेजों के गले का फंदा ना बनती। महज 23 साल के भगत, राजगुरू और सुखदेव की फांसी को गुमनाम रखने के लिए अंग्रेजों ने लाख जतन किए। लेकिन, मौत की तरफ मुस्कुराते हुए बढ़ते उन मतवालों के गीत हिंदुस्तानी युवाओं की नसों में आग बनकर उतर गए। उस आवाज का लावा अंग्रेज शासन की हर चौकी को राख कर गया।
अशफाक उल्ला खां और राम प्रसाद बिस्मिल की दोस्ती किसी भी मिसाल से बढ़कर है... शायद आज के हालात देख उन्हें शर्म से ही मौत आ जाती।
ये सारी बातें इसलिए कि हमारी यादाश्त लौट आए। हम हिंदुस्तान में रहते हैं... चांद पर नहीं और अगर वहां भी इतने ही खुदगर्ज रहेंगे, तो आजाद आशियां वहां भी नहीं बसेगा।
ये काले अंग्रेज गोरों से ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि वो काले रंग की कमजोरियों और ताकत से वाकिफ हैं। ये न केवल अपनी जमीन लूट रहे हैं, बल्कि इंसानों को भी भुखमरी और बेरोजगारी की जंजीरों में जकड़ रहे हैं। ये गुलामी की ही जंजीरें हैं, जो कोई गोरा लेकर नहीं आया।
वक्त का तकाजा कह रहा है कि पहल के लिए दूसरे का मुंह ताकना बंद कर दें। बुराई, नाइंसाफी और जालिम हुक्मरान के खात्मे के लिए किसी मसीहा के पैदा होने का इंतजार ना करते रहें।
जरूरत है अपनी जड़ों को पहचानने की... अपनी मिट्टी को पहचानने की और अपनी ताकत को पहचानने की। हिंदुस्तान... जो हिंदुस्तानियों और उनकी जमीनों से बना है। अपनी ही जमीन पर गांधी, आजाद और अशफाक उल्ला खां बनकर खड़े हो जाओ। जर्रा-जर्रा गुलामी में डूबा है, तो जर्रा-जर्रा ही आजाद करना होगा। टुकड़ों में इस गुलामी से आजादी नहीं मिल सकती। जागो और हुंकार लगाओ... सिर मत झुकाओ... नाइंसाफी के आगे।