मिट्टी के
चूल्हे पर पकती
उन कच्ची-पक्की बातों को
उन कच्ची-पक्की बातों को
आंगन
की मिट्टी पर पड़ती
सौंध-सौंधी
बरसातों को
नुक्कड़ के कूएं पर बुझती
मेरी चुल्लू भर प्यासों को
उन
सर्द ठिठुरती रातों में
सीने
पर पड़ती थापों को
जी
भरकर किस्से सुनते थे
जुगनू
वाली उन रातों को
गिरने
पर सहारा देते थे
लाठी
पकड़े उन हाथों को
जाने कब और क्यों भूल गया..
मिट्टी से रिश्ते नातों को....
कैसे
फिर से जिंदा कर दूं
उन
रंगों को..उन यादों को