Sunday 2 October 2011

इस बार अंधेरों से कुछ हिसाब करेंगे


इस बार अंधेरों से कुछ हिसाब करेंगे
क्यों छाए हो इस दर पे सवालात करेंगे

बुझाओ चाहे लाख तुम चराग-ए-जिन्दगी 
खुद को जला के घर को आफताब करेंगे 

सेजों पे पड़ी सलवटें बन जाएंगी संगीन
लहू को उसकी मांग का खिताब करेंगे

हो जाएगी शगल ये शहादत की आरजू  
हम मौत की घड़ी में यूं बरात करेंगे 

ये हौसले की लौ कभी बुझने न पायेगी
हम इस कदर अपने लहू को आग करेंगे

3 comments:

  1. बहुत ही उंचे विचार हैं आपके काफी अच्छा भी लिखा है आपने.... लेकिन मुझे खुशी होती कि आप आज से दो हफते मतलब 28 सितंबर को यह आपके उंचे विचार खिलते...... क्योंकि इसी दिन भारत माटी के इस वीर सपूत का इस भारतवर्ष् में जन्म हुआ था.......खैर कोई बात नहीं देर आए दुरूस्त आए मेरा कहने का मतलब इतना ही है कि इस धधकती हुई ज्वाला हो आप इसी तरह बरकरार रखे.......... क्योंकि इस देश में अब अहिंसावादी होने का मतलब हमें अच्छी तरह से समझ में आ रहा है और इसलिए हम सबको जैसा की आपने लिखा है कि बस उसी तरह अपने भारत वर्ष के उन वीर योद्धाओं की तरह अपनी जीवन शैली और विचार शैली में परिवर्तन लाना होगा.... ​​िफर से एक बार शुक्रिया मेरे दोस्त ..............

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  2. हौसलाफजाई के लिए शुक्रिया दोस्त.. पंक्तियाँ भगत के लिए और २८ सितम्बर को ही लिखी गई थीं.. बस इस जगह आने में वक़्त लगा

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